Sanatan Sinhnaad : Dharmo Rakshati Rakshitah
Sanatan Sinhnaad: The Revival of Sanatan Sanskriti. Let All of Us Protect, Preserve and Follow our Eternal Dharma
Sanatan Dharma Gyan
Tuesday 18 April 2017
Saturday 15 April 2017
सम्राट विक्रमादित्य ने रोम के शासक जुलियस सीजर(Julius Caesar) को हराकर उसे बंदी बनाकर उज्जेन की सड़कों पर घुमाया था :: सम्राट विक्रमादित्य का साम्राज्य अरब तक था::
शकों को भारत से खदेड़ने के बाद सम्राट विक्रमादित्य ने पुरे भारतवर्ष में ही नही , बल्कि लगभग पूरे विश्व को जीत कर हिंदू संस्कृति का प्रचार पूरे विश्व में किया। सम्राट के साम्राज्य में कभी सूर्य अस्त नही होता था। सम्राट विक्रमादित्य ने अरबों पर शासन किया था, इसका प्रमाण स्वं अरबी काव्य में है । "सैरुअल ओकुल" नमक एक अरबी काव्य , जिसके लेखक "जिरहम विन्तोई" नमक एक अरबी कवि है। उन्होंने लिखा है,-------
"वे अत्यन्त भाग्यशाली लोग है, जो सम्राट विक्रमादित्य के शासन काल में जन्मे। अपनी प्रजा के कल्याण में रत वह एक कर्ताव्यनिष्ट , दयालु, एवं सचरित्र राजा था।"
"किंतु उस समय खुदा को भूले हुए हम अरब इंद्रिय विषय -वासनाओं में डूबे हुए थे । हम लोगो में षड़यंत्र और अत्याचार प्रचलित था। हमारे देश को अज्ञान के अन्धकार ने ग्रसित कर रखा था। सारा देश ऐसे घोर अंधकार से आच्छादित था जैसा की अमावस्या की रात्रि को होता है। किंतु शिक्षा का वर्तमान उषाकाल एवं सुखद सूर्य प्रकाश उस सचरित्र सम्राट विक्रम की कृपालुता का परिणाम है। यद्यपि हम विदेशी ही थे,फ़िर भी वह हमारे प्रति उपेछा न बरत पाया। जिसने हमे अपनी द्रष्टि से ओझल नही किया"। "उसने अपना पवित्र धर्म हम लोगो में फैलाया। उसने अपने देश से विद्वान् लोग भेजे,जिनकी प्रतिभा सूर्य के प्रकाश के समान हमारे देश में चमकी । वे विद्वान और दूर द्रष्टा लोग ,जिनकी दयालुता व कृपा से हम एक बार फ़िर खुदा के अस्तित्व को अनुभव करने लगे। उसके पवित्र अस्तित्व से परिचित किए गए,और सत्य के मार्ग पर चलाए गए। उनका यहाँ पर्दापण महाराजा विक्रमादित्य के आदेश पर हुआ। "
इसी काव्य के कुछ अंश बिड़ला मन्दिर,दिल्ली की यज्ञशाला के स्तभों पर उत्कीर्ण है,-------------------१-हे भारत की पुन्य भूमि!तू धन्य है क्योंकि इश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझको चुना। २-वाह्ह ईश्वर का ज्ञान जो सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है,यह भारतवर्ष में ऋषियो द्बारा चारों रूप में प्रकट हुआ। ३-और परमात्मा समस्त संसार को आज्ञा देता है की वेड जो मेरे गान है उनके अनुसार आचरण करो। वह ज्ञान के भण्डार 'साम' व 'यजुर 'है। ४ -और दो उनमे से 'ऋग् ' व 'अथर्व 'है । जो इनके प्रकाश में आ गया वह कभी अन्धकार को प्राप्त नही होता।
सम्राट विक्र्मदिय के काल में भारत विज्ञान, कला, साहित्य, गणित, नस्छ्त्र आदि विद्याओं का विश्व गुरु था। महान गणितग्य व ज्योतिर्विद्ति वराह मिहिर ने सम्राट विक्रम के शासन काल में ही सारे विश्व में भारत की कीर्ति पताका फहराई थी।
सम्राट विक्रम ने रोम के शासक जुलियस सीजर को भी हराकर उसे बंदी बनाकर उज्जेन की सड़कों पर घुमाया था.
टिपण्णी यह है कि ----------------------
कालिदास-ज्योतिर्विदाभरण-अध्याय२२-ग्रन्थाध्यायनिरूपणम्-
श्लोकैश्चतुर्दशशतै सजिनैर्मयैव ज्योतिर्विदाभरणकाव्यविधा नमेतत् ॥ᅠ२२.६ᅠ॥
विक्रमार्कवर्णनम्-वर्षे श्रुतिस्मृतिविचारविवेकरम्ये श्रीभारते खधृतिसम्मितदेशपीठे।
मत्तोऽधुना कृतिरियं सति मालवेन्द्रे श्रीविक्रमार्कनृपराजवरे समासीत् ॥ᅠ२२.७ᅠ॥
नृपसभायां पण्डितवर्गा-शङ्कु सुवाग्वररुचिर्मणिरङ्गुदत्तो जिष्णुस्त्रिलोचनहरो घटखर्पराख्य।
अन्येऽपि सन्ति कवयोऽमरसिंहपूर्वा यस्यैव विक्रमनृपस्य सभासदोऽमो ॥ᅠ२२.८ᅠ॥
सत्यो वराहमिहिर श्रुतसेननामा श्रीबादरायणमणित्थकुमारसिंहा।
श्रविक्रमार्कंनृपसंसदि सन्ति चैते श्रीकालतन्त्रकवयस्त्वपरे मदाद्या ॥ᅠ२२.९ᅠ॥
नवरत्नानि-धन्वन्तरि क्षपणकामरसिंहशङ्कुर्वेतालभट्टघटखर्परकालिदासा।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपते सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥ᅠ२२.१०ᅠ॥
यो रुक्मदेशाधिपतिं शकेश्वरं जित्वा गृहीत्वोज्जयिनीं महाहवे।
आनीय सम्भ्राम्य मुमोच यत्त्वहो स विक्रमार्कः समसह्यविक्रमः ॥ २२.१७ ॥
तस्मिन् सदाविक्रममेदिनीशे विराजमाने समवन्तिकायाम्।
सर्वप्रजामङ्गलसौख्यसम्पद् बभूव सर्वत्र च वेदकर्म ॥ २२.१८ ॥
शङ्क्वादिपण्डितवराः कवयस्त्वनेके ज्योतिर्विदः सभमवंश्च वराहपूर्वाः।
श्रीविक्रमार्कनृपसंसदि मान्यबुद्घिस्तत्राप्यहं नृपसखा किल कालिदासः ॥ २२.१९ ॥
काव्यत्रयं सुमतिकृद्रघुवंशपूर्वं पूर्वं ततो ननु कियच्छ्रुतिकर्मवादः।
ज्योतिर्विदाभरणकालविधानशास्त्रं श्रीकालिदासकवितो हि ततो बभूव ॥ २२.२० ॥
वर्षैः सिन्धुरदर्शनाम्बरगुणै(३०६८)र्याते कलौ सम्मिते, मासे माधवसंज्ञिके च विहितो ग्रन्थक्रियोपक्रमः।
नानाकालविधानशास्त्रगदितज्ञानं विलोक्यादरा-दूर्जे ग्रन्थसमाप्तिरत्र विहिता ज्योतिर्विदां प्रीतये ॥ २२.२१ ॥
ज्योतिर्विदाभरण की रचना ३०६८ कलि वर्ष (विक्रम संवत् २४) या ईसा पूर्व ३३ में हुयी। विक्रम सम्वत् के प्रभाव से उसके १० पूर्ण वर्ष के पौष मास से जुलिअस सीजर द्वारा कैलेण्डर आरम्भ हुआ, यद्यपि उसे ७ दिन पूर्व आरम्भ करने का आदेश था। विक्रमादित्य ने रोम के इस शककर्त्ता को बन्दी बनाकर उज्जैन में भी घुमाया था (७८ इसा पूर्व में) तथा बाद में छोड़ दिया।। इसे रोमन लेखकों ने बहुत घुमा फिराकर जलदस्युओं द्वारा अपहरण बताया है तथा उसमें भी सीजर का गौरव दिखाया है कि वह अपना अपहरण मूल्य बढ़ाना चाहता था। इसी प्रकार सिकन्दर की पोरस (पुरु वंशी राजा) द्वारा पराजय को भी ग्रीक लेखकों ने उसकी जीत बताकर उसे क्षमादान के रूप में दिखाया है।
http://en.wikipedia.org/wiki/Julius_Caesar
Gaius Julius Caesar (13 July 100 BC – 15 March 44 BC) --- In 78 BC, --- On the way across the Aegean Sea, Caesar was kidnapped by pirates and held prisoner. He maintained an attitude of superiority throughout his captivity. When the pirates thought to demand a ransom of twenty talents of silver, he insisted they ask for fifty. After the ransom was paid, Caesar raised a fleet, pursued and captured the pirates, and imprisoned them. He had them crucified on his own authority.
Quoted from History of the Calendar, by M.N. Saha and N. C. Lahiri (part C of the Report of The Calendar Reforms Committee under Prof. M. N. Saha with Sri N.C. Lahiri as secretary in November 1952-Published by Council of Scientific & Industrial Research, Rafi Marg, New Delhi-110001, 1955, Second Edition 1992.
Page, 168-last para-“Caesar wanted to start the new year on the 25th December, the winter solstice day. But people resisted that choice because a new moon was due on January 1, 45 BC. And some people considered that the new moon was lucky. Caesar had to go along with them in their desire to start the new reckoning on a traditional lunar landmark.”
ज्योतिर्विदाभरण की कहानी ठीक होने के कई अन्य प्रमाण हैं-सिकन्दर के बाद सेल्युकस्, एण्टिओकस् आदि ने मध्य एसिआ में अपना प्रभाव बढ़ाने की बहुत कोशिश की, पर सीजर के बन्दी होने के बाद रोमन लोग भारत ही नहीं, इरान, इराक तथा अरब देशों का भी नाम लेने का साहस नहीं किये। केवल सीरिया तथा मिस्र का ही उल्लेख कर संतुष्ट हो गये। यहां तक कि सीरिया से पूर्व के किसी राजा के नाम का उल्लेख भी नहीं है। बाइबिल में लिखा है कि उनके जन्म के समय मगध के २ ज्योतिषी गये थे जिन्होंने ईसा के महापुरुष होने की भविष्यवाणी की थी। सीजर के राज्य में भी विक्रमादित्य के ज्योतिषियों की बात प्रामाणिक मानी गयी।
Friday 14 April 2017
History of Kashi Vishwanath Temple : The Hidden Truth
Kashi Vishwanath Temple is one of the most famous Hindu temples dedicated to Lord Shiva and is located in Varanasi, the Holiest existing Place of Hindus, where at least once in life a Hindu is expected to do pilgrimage, and if possible, also pour the remains (ashes) of cremated ancestors here on the River Ganges. The main deity is known by the name Vishwanatha or Vishweshwara meaning the Ruler of the universe. The temple town that claims to be the oldest living city in the world, with 3500 years of documented history.
However, the original Jyotirlinga of Kashi Vishwanath is not available. The old temple was destroyed as a result of the Mughal invasion. Historical records suggest that it was destroyed many times by Muslim rulers. The first Muslim invader to attack Varanasi was Ahmed Nihalidin, the governor of the Indian province of the Ghazani empire, in the 11th century. His aim was to acquire the wealth accumulated in the temples of Varanasi. Later, Qutub-ud-din Aibak of the slave dynasty invaded the city and more than 1000 temples are said to have been destroyed in this onslaught.
After the defeat of Ibrahim Lodi in 1526, the city passed under the control of Afghans but was later captured by the Moghul ruler Babur. In 1539, it was captured by Sher Shah Suri. In the tolerant regime of Akbar, many temples and other structure were rebuilt by Hindu kings in Varanasi.
Raja Todar mal, one of the "jewels" in Akbar's court, constructed a new temple on the site of the destroyed Vishwanath temple in 1585. This was again destroyed by Aurangzeb in 1669 while on his way to conquer the Deccan. Aurangzeb got a mosque constructed in its place named as Gyanvapi. The Kashi Vishweshwar temple as we see it now was built by Ahalya Devi Holkar in 1777 AD. In 1785 AD, then King of Kashi, Mansaram and his son Belvant Singh built many more temples near Varanasi. In 1755 AD, the Avadh pantof pratinidhi (representative) got the old temple of Bindumadhava repaired and renovated it beautifully. The kalabhairava temple was built by Srimant Baji Rao Peshwa in 1852 AD.
King Ranjit Singh had the Kashi Vishwanath temple towers covered in gold. A huge bell hangs in the temple. It was donated by the King of Nepal.
Adjacent to the temple is the Gyanvapi Masjid, which was built by Auragzeb on the remnants of the original temple. Material from the destroyed temple was reused by Aurangzeb while building the Gyanvapi Mosque. The mosque shows evidence of original Hindu temple in its foundation, columns and rear. The old temple wall was also incorporated as part of the walls of the mosque. The deliberately retained remnants of the temple are described to be "a warning and an insult to Hindu feelings".
The Gyanvapi — the well of knowledge — is situated between the temple and the mosque. The well is believed by Hindus to be the location where the sacred Shiva linga icon of the temple was hidden, Main Mahant (preist) of the temple sacrificed his life and jumped into the well with the original Shivalinga to save it from Aurangzeb, before the temple was razed by Aurangzeb. Earlier there were a many more Shiva temples in the vicinity of this temple. Sadly they were razed by the muslim invaders. Aurangzeb continued the tradition of demolition. He pulled down the temple here and raised Gyanvapi Mosque.
The remnants of the original Vishwanath temple are revered by the devout Hindus as Shrinagar Gauri, the abode of Lord Mahadev. Muslims offer namaz in the premises of the Gyanvapi masjid but not in the main hall.
Thursday 11 February 2016
The City of Dwarka had existed from 32,000 to 9,000 BC??
The modern city of Dwaraka is to be found in Saurashtra and is a great pilgrim centre since our scriptures declare it to be the seat of the Yadava clan and Lord Krishna’s capital. However according to the stories mentioned in many of the Puranas like, the Mahabharata, Harivamsa, Vishnu Purana etc. that fabled city of Dwaraka had been washed away into the sea. Soon after the Lord left his mortal body, the city was washed away as he had predicted, the scene of which has been graphically described above.
In 1983 some excavations were done outside the modern city of Dwaraka, which revealed the existence of a glorious city of ancient times. They found seven temples one on top of the other. The bottom most one was the most interesting since it showed many pottery shards and seals which clearly pointed to the existence of a fantastic city at about the time mentioned in the Mahabharata. These findings encouraged the Marine archaeology centre of the National Institute of Oceanography, to take up a serious work along the coast of the island known as Bet Dwaraka.
The strongest archaeological support for the existence for the legendary city of Dwaraka, comes from the structures discovered in the late 1980s under the seabed off the coast of modern Dwaraka in Gujarat by a team of archaeologists and divers led by Dr S.R. Rao, one of India's most respected archaeologists. An emeritus scientist at the marine archaeology unit of the National Institute of Oceanography, Goa, Rao has excavated a large number of Harappan sites, including the port city of Lothal in Gujarat.
In his book “The Lost City of Dwaraka”, published in 1999, he writes about his undersea findings: “The discovery is an important landmark in the history of India. It has set to rest the doubts expressed by historians about the historicity of the Mahabharata and the very existence of the city of Dwaraka.”
Conducting 12 expeditions during 1983-1990, Rao identified two underwater settlements, one near the present-day Dwaraka and the other off the nearby island of Bet Dwaraka. This tallies with the two Dwarakas mentioned in the epic. These underwater expeditions won Rao the first World Ship Trust Award for Individual Achievement.
Another important find by the divers was a conch seal that established the submerged township's connection with the Dwaraka of the Mahabharata. The seal corroborates the reference made in the ancient text, the Harivamsa that every citizen of Dwaraka had to carry such a seal for purposes of identification. Krishna had declared that only one who carried such a seal could enter the city. A similar seal has been found onshore.
From 1998 to 2001 many underwater explorations were set about which pointed out to a highly civilised city which must have existed at that site, which had great maritime connections with many other countries and which must have been washed away by something like a tsunami or some such hurricane. Dwaraka was a large well- fortified city with an excellent drainage system, massive gates and a wall stretching about hundred eighty miles. It was a sprawling city with gardens and orchards and bastions, with a population of about 10 thousand people. There are many clues which point out to the fact that it must also have been a bustling port. Many ancient anchor stones give ample evidence of this.
All these findings have suddenly roused a lot of interest amongst all Hindus both in India and abroad since it is solid proof of the existence of one of the favourite gods in the Hindu pantheon, namely Lord Krishna.
Around the same time archaeologists from other countries were also busy. Along the coast of the Bay of Cambay and off the coast of modern Dwaraka, they found evidence of a settlement deep under the sea. In seventy feet of water, they found sandstone walls and cobbled streets. Looking up the descriptions of the city of Dwaraka as found in the ancient Hindu scriptures they realised that this must be the remains of the legendary city of Dwaraka ruled by the great God King, Krishna. Wood and pottery chards were found that can be dated back to 32,000 years again proving that the time limits set in ancient Hindu scriptures might be true even though most westerners dismissed it as being absurd. But now with these findings they cannot help but believe, if they want to believe. For many years now western Indologists have shut their eyes to the glory that was ancient India. The city had existed from 32,000 to 9,000 BC. This discovery proves that the life of Krishna is not mere mythology but it is a true, historical record of a towering personality who had lived on this holy land of India.
Tuesday 9 February 2016
How many of you know about Yantras : mechanical productions
Maharshi Bharadwaja is an august name in the pantheon of Hindu Sages who recorded Indian civilization, in the spiritual, intellectual, and scientific fields in the hoary past. The rishis transmitted knowledge from mouth to mouth and from ear to ear, for long eras. Written transmission through birch-backs or palm leaves or home made paper, are from this side of a thousand years. The word “yantra” is derived from the root yam, to control, and has been freely used in ancient India for any contrivance. Mechanical skills had produced in ancient India many accessories for scientific activities, such as surgical instruments in medicine, the pakayantras or laboratory equipment in medicine, Rasayana, and the astronomical yantras described in Jyotisa works. These belong to a different category. In the Mahabharata we hear of the Matsya-yantra or the revolving wheel with a fish which Arjuna had to shoot in order to win Draupadi in the svayamvara.
More interesting references are made by Valmiki to yantras on the field of battle, the continuity of which tradition we see later in the Arthasastra of Kautilya. The fortifications include equipment in the form of yantras. In Ayodhya 100.53, in the Kaccita-sarga, while enquiring about measures of defense, Rama asks Bharata whether the fort is equipped with yantras. Lanka, as a city built by Maya, is naturally more full of the yantras. The city, personified as a lady, is called yantra-agara-stani, informing us of a special chamber filled with yantras. (Sundara 3. 18). The Arthasastra of Kautilya is one of the books of culture which throws a flood of light on the particular epochs in which they arose. This work of 300 B.C.E. being a treatise on statecraft, speaks of yantras in connection mainly with battles, but also with architecture to some extent. An early work, a theoretical treatise and a text of great reputation, the Arthasastra forms our most valuable document on the subject of yantras.
And, as early as the Bhagavad Gita, the machine became an apt simile for man being a tool in the hands of the Almighty that sits in man's heart and by His mystic power makes man not only move but also delude himself into the notion of his being a free or competent agent.
The following machines are to be made of a metal called Veera. An alloy formed by melting and fusing the three metals Kshwinka, Arjunika and Kanta (magnet), in three, five and nine parts respectively, is called Veeraloha or a metal namely Veera. When it undergoes shastraic processes, it cannot be destroyed by fire, air, water, electricity, cannon, gun-powder or the like. It will then be very strong, light, and of golden color. The metal is specially meant for Machines.
Panchamukha Yantra::
A machine of this name contains doors in east, south, west, north and top. Weighs 170 Ratals. Carries one thousand Ratals. By the help of electricity it can travel five Kroshas per hour. It is used as conveyance for men and in wars. Since the machine is conducted by the power of a spirit called Gaja it is named as Gajaakarshana Panchamukha Ratha.
Mrugaakasrshana Yantra::
These are the machines drawn by such animals as oxen, asses, horses, camels, elephants and so on.
Chaturmukha Ratha Yantra::
This machine has faces or openings on four sides. Weighs 120 Ratals. It can be conducted with any oil, preferably that of coconut shells, or with the help of electricity. Travels six Kroshas per hour. Used for traveling, wars, and transporting things.
Trimukha Ratha Yantra::
This Machine weighs 116 Ratals. It has three doors, downwards, upwards and on one side. It can carry a weight of 600 Ratals. It is conducted with the help of oil extracted from knotted root of Simha-Krantha, and from that extracted out of the stalks of a kind of grass. If such oils are not available, electricity may be made use of. It is used for the purposes that the above machine, viz. Cahkra-mukha-Ratha Yantra is used.
Dwimukha Yantra
It weights 80 Ratals. Doors to east and west. Conducted by a wheel fitted with screws. Travels three Koshas per hour. Can carry a weight of three hundred Ratals. Used for the above purposes.
Ekamukha Ratha Yantra
This machine has only one door. Weighs 48 Ratals. Carries two hundred Ratals of weight. Travels with the help of oil extracted from the seeds of Kancha-Thoola or Sovlaalika or by electricity: speed 1 Keosha per hour. Used for the above purposes.
Simhaasya Ratha Yantra
This machine presents a front of a lion’s appearance. Possesses two doors. 75 Ratals in weight. Carries a weight of 50 Ratals. It can travel both on land and air. It has the quality of expanding and contracting. Used for the above purposes.
Vyaaghraasya Ratha Yantra
This is modeled after a tiger. Possesses wings. Weighs 64 Ratals. Carries 200 Ratals of weight. It travels in air expanding its wings with electric power, but contracting its wings with steam power. It is used for the above purposes.
Source :: Diamonds, Mechanisms Weapons of War Yoga Sutras - By G. R. Josyer
Sunday 7 February 2016
ताज महल नहीं तेजोमहल, मकबरा नहीं शिवमन्दिर
बी.बी.सी. कहता है...........
ताजमहल...........
एक छुपा हुआ सत्य..........
कभी मत कहो कि.........
यह एक मकबरा है..........
प्रो.पी. एन. ओक. को छोड़ कर किसी ने कभी भी इस कथन को चुनौती नही दी कि........
"ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था"
प्रो.ओक. अपनी पुस्तक "TAJ MAHAL - THE TRUE STORY" द्वारा इस
बात में विश्वास रखते हैं कि,--
सारा विश्व इस धोखे में है कि खूबसूरत इमारत ताजमहल को मुग़ल बादशाह
शाहजहाँ ने बनवाया था.....
ओक कहते हैं कि......
ताजमहल प्रारम्भ से ही बेगम मुमताज का मकबरा न होकर,एक हिंदू प्राचीन शिव
मन्दिर है जिसे तब तेजो महालय कहा जाता था.
अपने अनुसंधान के दौरान ओक ने खोजा कि इस शिव मन्दिर को शाहजहाँ ने जयपुर
के महाराज जयसिंह से अवैध तरीके से छीन लिया था और इस पर अपना कब्ज़ा कर
लिया था,,
=> शाहजहाँ के दरबारी लेखक "मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी "ने अपने
"बादशाहनामा" में मुग़ल शासक बादशाह का सम्पूर्ण वृतांत 1000 से ज़्यादा
पृष्ठों मे लिखा है,,जिसके खंड एक के पृष्ठ 402 और 403 पर इस बात का
उल्लेख है कि, शाहजहाँ की बेगम मुमताज-उल-ज़मानी जिसे मृत्यु के बाद,
बुरहानपुर मध्य प्रदेश में अस्थाई तौर पर दफना दिया गया था और इसके ०६
माह बाद,तारीख़ 15 ज़मदी-उल- अउवल दिन शुक्रवार,को अकबराबाद आगरा लाया
गया फ़िर उसे महाराजा जयसिंह से लिए गए,आगरा में स्थित एक असाधारण रूप से
सुंदर और शानदार भवन (इमारते आलीशान) मे पुनः दफनाया गया,लाहौरी के
अनुसार राजा जयसिंह अपने पुरखों कि इस आली मंजिल से बेहद प्यार करते थे
,पर बादशाह के दबाव मे वह इसे देने के लिए तैयार हो गए थे.
इस बात कि पुष्टि के लिए यहाँ ये बताना अत्यन्त आवश्यक है कि जयपुर के
पूर्व महाराज के गुप्त संग्रह में वे दोनो आदेश अभी तक रक्खे हुए हैं जो
शाहजहाँ द्वारा ताज भवन समर्पित करने के लिए राजा
जयसिंह को दिए गए थे.......
=> यह सभी जानते हैं कि मुस्लिम शासकों के समय प्रायः मृत दरबारियों और
राजघरानों के लोगों को दफनाने के लिए, छीनकर कब्जे में लिए गए मंदिरों और
भवनों का प्रयोग किया जाता था ,
उदाहरनार्थ हुमायूँ, अकबर, एतमाउददौला और सफदर जंग ऐसे ही भवनों मे
दफनाये गए हैं ....
=> प्रो. ओक कि खोज ताजमहल के नाम से प्रारम्भ होती है---------
=> "महल" शब्द, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में
भवनों के लिए प्रयोग नही किया जाता...
यहाँ यह व्याख्या करना कि महल शब्द मुमताज महल से लिया गया है......वह कम
से कम दो प्रकार से तर्कहीन है---------
पहला -----शाहजहाँ कि पत्नी का नाम मुमताज महल कभी नही था,,,बल्कि उसका
नाम मुमताज-उल-ज़मानी था ...
और दूसरा-----किसी भवन का नामकरण किसी महिला के नाम के आधार पर रखने के
लिए केवल अन्तिम आधे भाग (ताज)का ही प्रयोग किया जाए और प्रथम अर्ध भाग
(मुम) को छोड़ दिया जाए,,,यह समझ से परे है...
प्रो.ओक दावा करते हैं कि,ताजमहल नाम तेजो महालय (भगवान शिव का महल) का
बिगड़ा हुआ संस्करण है, साथ ही साथ ओक कहते हैं कि----
मुमताज और शाहजहाँ कि प्रेम कहानी,चापलूस इतिहासकारों की भयंकर भूल और
लापरवाह पुरातत्वविदों की सफ़ाई से स्वयं गढ़ी गई कोरी अफवाह मात्र है
क्योंकि शाहजहाँ के समय का कम से कम एक शासकीय अभिलेख इस प्रेम कहानी की
पुष्टि नही करता है.....
इसके अतिरिक्त बहुत से प्रमाण ओक के कथन का प्रत्यक्षतः समर्थन कर रहे हैं......
तेजो महालय (ताजमहल) मुग़ल बादशाह के युग से पहले बना था और यह भगवान्
शिव को समर्पित था तथा आगरा के राजपूतों द्वारा पूजा जाता था-----
==> न्यूयार्क के पुरातत्वविद प्रो. मर्विन मिलर ने ताज के यमुना की तरफ़
के दरवाजे की लकड़ी की कार्बन डेटिंग के आधार पर 1985 में यह सिद्ध किया
कि यह दरवाजा सन् 1359 के आसपास अर्थात् शाहजहाँ के काल से लगभग 300 वर्ष
पुराना है...
==> मुमताज कि मृत्यु जिस वर्ष (1631) में हुई थी उसी वर्ष के अंग्रेज
भ्रमण कर्ता पीटर मुंडी का लेख भी इसका समर्थन करता है कि ताजमहल मुग़ल
बादशाह के पहले का एक अति महत्वपूर्ण भवन था......
==>यूरोपियन यात्री जॉन अल्बर्ट मैनडेल्स्लो ने सन् 1638 (मुमताज कि
मृत्यु के 07 साल बाद) में आगरा भ्रमण किया और इस शहर के सम्पूर्ण जीवन
वृत्तांत का वर्णन किया,,परन्तु उसने ताज के बनने का कोई भी सन्दर्भ नही
प्रस्तुत किया,जबकि भ्रांतियों मे यह कहा जाता है कि ताज का निर्माण
कार्य 1631 से 1651 तक जोर शोर से चल रहा था......
==> फ्रांसीसी यात्री फविक्स बर्निअर एम.डी. जो औरंगजेब द्वारा गद्दीनशीन
होने के समय भारत आया था और लगभग दस साल यहाँ रहा,के लिखित विवरण से पता
चलता है कि,औरंगजेब के शासन के समय यह झूठ फैलाया जाना शुरू किया गया कि
ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था.......
प्रो. ओक. बहुत सी आकृतियों और शिल्प सम्बन्धी असंगताओं को इंगित करते
हैं जो इस विश्वास का समर्थन करते हैं कि,ताजमहल विशाल मकबरा न होकर
विशेषतः हिंदू शिव मन्दिर है.......
आज भी ताजमहल के बहुत से कमरे शाहजहाँ के काल से बंद पड़े हैं,जो आम जनता
की पहुँच से परे हैं
प्रो. ओक., जोर देकर कहते हैं कि हिंदू मंदिरों में ही पूजा एवं धार्मिक
संस्कारों के लिए भगवान् शिव की मूर्ति,त्रिशूल,कलश और ॐ आदि वस्तुएं
प्रयोग की जाती हैं.......
==> ताज महल के सम्बन्ध में यह आम किवदंत्ती प्रचलित है कि ताजमहल के
अन्दर मुमताज की कब्र पर सदैव बूँद बूँद कर पानी टपकता रहता है,, यदि यह
सत्य है तो पूरे विश्व मे किसी किभी कब्र पर बूँद बूँद कर पानी नही
टपकाया जाता,जबकि
प्रत्येक हिंदू शिव मन्दिर में ही शिवलिंग पर बूँद बूँद कर पानी टपकाने की
व्यवस्था की जाती है,फ़िर ताजमहल (मकबरे) में बूँद बूँद कर पानी टपकाने का क्या
मतलब....????
==> राजनीतिक भर्त्सना के डर से इंदिरा सरकार ने ओक की सभी पुस्तकें स्टोर्स से
वापस ले लीं थीं और इन पुस्तकों के प्रथम संस्करण को छापने वाले संपादकों को
भयंकर परिणाम भुगत लेने की धमकियां भी दी गईं थीं....
==> प्रो. पी. एन. ओक के अनुसंधान को ग़लत या सिद्ध करने का केवल एक ही रास्ता है
कि वर्तमान केन्द्र सरकार बंद कमरों को संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षण में
खुलवाए, और अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों को छानबीन करने दे ....
ज़रा सोचिये....!!!!!!
कि यदि ओक का अनुसंधान पूर्णतयः सत्य है तो किसी देशी राजा के बनवाए गए
संगमरमरी आकर्षण वाले खूबसूरत, शानदार एवं विश्व के महान आश्चर्यों में से
एक भवन, "तेजो महालय" को बनवाने का श्रेय बाहर से आए मुग़ल बादशाह शाहजहाँ
को क्यों......?????
तथा......
इससे जुड़ी तमाम यादों का सम्बन्ध मुमताज-उल-ज़मानी से क्यों........???????
""""आंसू टपक रहे हैं, हवेली के बाम से.......
रूहें लिपट के रोटी हैं हर खासों आम से.......
अपनों ने बुना था हमें, कुदरत के काम से......
फ़िर भी यहाँ जिंदा हैं हम गैरों के नाम से......"""""
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