Thursday, 19 November 2015

What makes Hinduism Unique and Great?? Why Hindus are so proud of being Hindu?? Why Hinduism is so amazing and Glorious?? Why Hinduism is still alive?? Why Hinduism is most ancient alive religion?



Lets answer them all.


The greatness of Hinduism can be summarized in few words.

“Freedom of Thoughts and Actions.”

1) Hinduism is a way of life, a culture and not an organized religion like Islam or Christianity. There is no POPE or hierarchy in Hinduism. Only thing Hinduism have a lot of scriptures.

2)Hinduism is a Culture and all the eastern religions like Buddhism, to some extend Jainism, Sikhism came from Hinduism.Judaism is also a culture/religion from which organized religions like Islam and Christianity came. 

3)Hinduism never ever had a “spring cleaning” like all other religions do. What ever any one wrote for the last thousands of years are still there for people to study and discuss.

4) No body is killed or crucified since he or she challenged Vedas or any other scriptures. In fact, Hindus worship Lord Buddha who challenged authority of Vedas and Hindu form of worship. 

5) Hinduism never state it has monopoly on truth or God.According to Hinduism, God & truth are universal.
Rig Veda states: ‘ekam sat viprah bahudaa vadanti’ …meaning Truth or God is one but learnt men describe it in many ways.

6) Hindu scriptures state, “Sathya meva Jayathe” meaning “Truth alone triumps, never falsehood.” So Hindu scriptures allow FREE FLOW OF THOUGHTS.
Hindu authors knew that by allowing absolute free of expression, every one will finally end up attaining truth. They preached, “Ignorance is the root cause of all evils and knowledge eradicates ignorance.’

7) Hinduism never state only by becoming a Hindu, one can attain salvation. Instead Hindu scriptures state, “Salvation or self-realization is open to all, irrespective whether a person Hindu or not. Even an agnostic and atheist can attain salvation.

8) Nobody is denied salvation in Hinduism. The best among us will attain with one life. The worst among us will attain through many lives.
Salvation or self-realization is the process by which one is attaining the true knowledge that he is the immortal soul Atman within and giving up the false knowledge that one is the perishable material body.

9) Hinduism never forcefully convert others to Hinduism like other religions do. Hinduism as a culture and it does not force any one to become a Hindu. Those who convert to Hinduism are doing that since they fell in love with Hinduism.

10) Hinduism believes in one and only God Brahman which expresses itself in trillions of forms. Hindus believe in a one, all-pervasive Supreme Being who is both immanent and transcendent, both Creator and Un manifested Reality.
According to Hindu scriptures you can worship that God which has NO name or form [nama-roopa] in any form & with any name.

You can worship that God calling it Jesus or Allah or Brahman or Krishna or Buddha or anything else you wish. In all worships, finally worshiper ends with a God which is spirit, which has no name or form.

11) Even atheists can proudly proclaim they are Hindus. In fact the Charvaka philosophy or Nastika philosophy, (existed during the Vedic period) founded by Charvaka rejected the existence of God and considered religion as an aberration. Nobody killed Charvaka. He died a natural death.

12) Hindus do NOT worship idols. Hindus use idols like everyone else to concentrate on a God who has no name or form.

13) Hindus believe that the universe undergoes endless cycles of creation, preservation and dissolution. This belief is in parallel with the modern big bang theory.

14) Voltaire in Essay on Tolerance wrote:: “I may disagree with what you say, but I will defend to the death, your right to say it.”

Hinduism is the symbol of what Voltaire wrote.



Rig Veda wrote: 

Vasudhaiba Kutumbakam
(the world is a family)

Rig Veda also wrote:

Let noble thoughts come to us from every side.

Monday, 16 November 2015

चतुर्वर्ण व्यवस्था, जाति प्रथा तथा जातिवाद की गंदी राजनीति




प्राचीन भारत की चतुर्वर्ण व्यवस्था तथा जाति प्रथा वास्तव में व्यक्ति के प्रकृति प्रदत्त स्वाभाविक गुणों के आधार पर कर्म अथवा व्यवसाय के चयन की व्यवस्था थी, जो सभी व्यक्ति एवं समाज के सर्वतोमुखी सतत निरंतर विकास हेतु सपर्पित संपूर्ण विश्व की सर्वोत्कृष्ट सामाजिक व्यवस्था थी, तथा जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है, तथा सही रूप में जिसका पालन कर आज भी सभी व्यक्ति एवं समाज का सर्वतोमुखी सतत निरंतर विकास संभव है । परन्तु मध्यकालीन भारत में चतुर्वर्ण व्यवस्था तथा जाति प्रथा की गलत व्याख्या कर उच्च वर्ग के कुछ निहित स्वार्थी तत्वों ने जातिवाद की गंदी राजनीति कर छुआ- छुत को बढावा दिया तथा चतुर्वर्ण व्यवस्था एवम जाति प्रथा का विकृत रूप समाज में पेश किया, जिसका अनुचित लाभ उठाकर वर्त्तमान भारत के परम स्वार्थी दुष्ट राजनीतिज्ञों ने स्वतंत्र भारत में जाति की अग्नि सुलगाकर राजनीति की रोटियां सेंकना शुरु कर दिया और धर्म, नियम, कानून और जनतंत्र के मूल सिद्धान्त, संविधान की मूल आत्मा, स्वतंत्रता आंदोलन के महान उद्देश्य, मानवाधिकार के सिद्धान्त तथा प्रकृति के नियमों के विरुद्ध “जातिवाद की गंदी राजनीति पर आधारित आरक्षण” का गंदा खेल खेलना शुरु किया, जो बदस्तूर अब भी जारी है, जिसका खामियाजा सभी व्यक्ति और समाज को ही नहीं अपितु संपूर्ण राष्ट्र और मानव जाति को भुगतना पडा है और भुगतना पड रहा है तथा समाज के एक बहुत बडे वर्ग की शक्ति, सामर्थ्य, क्षमता, योग्यता एवं प्रतिभा व्यर्थ चली गयी तथा व्यर्थ चली जा रही है। “जातिवाद की गंदी राजनीति पर आधारित आरक्षण” का गंदा खेल भारतीय संविधान की मूल आत्मा के विरूद्ध है, धर्म, न्याय एवम जनतंत्र के मूल सिद्धान्तों के विरूद्ध है तथा ब्रेन ड्रेन (प्रतिभा पलायन) की समस्या को जन्म दे रहा है, भारतीय जनमानस के बीच भेद – भाव पैदा कर रहा है, वैमनस्य का विष घोल रहा है तथा राष्ट्र की एकता और अखंडता को विखंडित कर रहा है।

जो व्यक्ति जातिवाद को गालिया देता है और जातिवाद के खिलाफ नारे लगता है, वही व्यक्ति अपने निहित स्वार्थ और फायदे के लिए जातिवाद को समाप्त नहीं होने देता | भारतीय सविधान में अम्बेडकर इफ्फेक्ट और जातिवाद की गंदी राजनीति पर आधारित आरक्षण पद्धति का दुष्परिणाम है कि यदि किसी को मुंह से दुसाध, चमार, धोबी या कुम्हार कह दिया जाये तो वह जघन्य अपराध और नॉन बेलेबुल ऑफेन्स हो जायेगा, लेकिन जाति पर आधारित आरक्षण का लाभ उठाने के लिए वही व्यक्ति घुस देकर भी दुसाध, चमार, धोबी या कुम्हार होने का लिखित प्रमाणपत्र बनवाता है |

प्राचीन भारत में सभ्य समाज को व्यवसाय के आधार पर चार प्रमुख वर्ग या वर्ण में बांटा गया था, यथा- ब्राह्मण वर्ण (बुद्धिजीवी वर्ग), क्षत्रिय वर्ण (योद्धा वर्ग), वैश्य वर्ण (कमाऊ वर्ग) तथा शूद्र वर्ण (श्रमिक वर्ग) । सभ्य समाज को व्यवसाय के आधार पर चार प्रमुख वर्ग या वर्ण में वर्गीकरण को ही चतुर्वर्ण व्यवस्था अथवा वर्ण व्यवस्था का नाम दिया गया । ब्राह्मण वर्ण (बुद्धिजीवी वर्ग) के लोग मुख्य रूप से शिक्षक, प्राध्यापक, प्राचार्य, शिक्षाविद, शोधकर्त्ता, वैज्ञानिक, न्यायविद, न्यायाधीश, कानूनी सलाहकार, नीति निर्धारक, चिकित्सक, मंत्री, प्रधान मंत्री, कवि, लेखक, दार्शनिक, समाज सेवक एवम संस्कृतिकर्मी का पेशा या व्यवसाय धारण करते थे तथा इस प्रकार के पेशा या व्यवसाय को धारण करनेवाले समस्त लोगों को ब्राह्मण वर्ण (बुद्धिजीवी वर्ग) की संज्ञा दी गयी, जो अपने बुद्धिबल से समाज को नियंत्रित कर सभी वर्ग के व्यक्ति, समाज, राज्य, राष्ट्र, समग्र मानव जाति तथा संपूर्ण विश्व के सर्वतोमुखी सतत निरंतर विकास के लिये निरंतर कार्य करते हुए निःस्वार्थ भाव से मानवता की सेवा में समर्पित हुआ करते थे । इसी प्रकार क्षत्रिय वर्ण (योद्धा वर्ग) के लोग मुख्य रूप से राजा, शासक, सैनिक, सेनापति, रक्षक, जन – रक्षक, युद्ध – कला में दक्ष महान योद्धा का पेशा या व्यवसाय धारण करते थे तथा इस प्रकार के पेशा या व्यवसाय को धारण करनेवाले समस्त लोगों को क्षत्रिय वर्ण (योद्धा वर्ग) की संज्ञा दी गयी, जो समाज में शांति एवम कानून एवम व्यवस्था बनाये रखने हेतु समाज पर शासन करते थे तथा बाह्य आक्रमण से राज्य के लोगों को सुरक्षा प्रदान किया करते थे । ठीक इसी प्रकार वैश्य वर्ण (कमाऊ वर्ग) के लोग मुख्य रूप से किसान, पशु पालक, लोहार, सोनार, तेली, बनिया, बढई, बुनकर, दुकानदार, व्यापारी का पेशा या व्यवसाय धारण करते थे तथा इस प्रकार के पेशा या व्यवसाय को धारण करनेवाले समस्त लोगों को वैश्य वर्ण (कमाऊ वर्ग) की संज्ञा दी गयी, जो अर्थोपार्जन कर संपूर्ण समाज तथा समाज के सभी वर्ण या वर्ग के लोगों को धन, भोजन, वस्त्र एवम दैनिक उपयोग की समस्त वस्तु उपलब्ध कराया करते थे । इसी प्रकार शूद्र वर्ण (श्रमिक वर्ग) के लोग मुख्य रूप से खेतिहर मजदूर, औद्योगिक मजदूर, घरेलु नौकर – दाई, कुली, सेवक, अनुसेवक, श्रमिक, सहायक आदि का पेशा या व्यवसाय धारण करते थे तथा इस प्रकार के पेशा या व्यवसाय को धारण करनेवाले समस्त लोगों को शूद्र वर्ण (श्रमिक वर्ग) की संज्ञा दी गयी, जो समाज के सभी वर्ण या वर्ग के लोगों को उनके कार्य मे सहायता प्रदान किया करते थे तथा जो समस्त प्रकार के कृषि, उद्योग, व्यवसाय एवम वाणिज्य व्यापार को आधार प्रदान किया करते थे । इसीलिये उपरोक्त चार वर्णों को उनके कर्मों तथा समाज में उनकी भूमिका एवम उपयोगिता के अनुसार ही ब्राह्मण वर्ण को समाज रूपी शरीर का मस्तक (मस्तिष्क), क्षत्रिय वर्ण को समाज रूपी शरीर की भुजा, वैश्य वर्ण को समाज रूपी शरीर का धड (मुख्य शरीर अर्थात दिल, सीना, पेट, पाचन तंत्र एवम मल – मूत्र विसर्जन तंत्र) तथा शूद्र वर्ण को समाज रूपी शरीर का आधार स्तंभ पैर अथवा पांव (समाज की संपूर्ण शारीरिक ढांचा का आधार स्तंभ) की संज्ञा दी गयी ।

इस सम्बंध में गीता में भगवान कृष्ण का निम्न कथन प्रासंगिक हैः-

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ॥
अर्थात् हे परन्तप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न उनके गुणों द्वारा विभक्त किये गये हैं । गीता- १८.४१

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥
अर्थात् अन्तःकरण का निग्रह करना, इन्द्रियों का दमन करना, धर्म पालन के लिये कष्ट सहना, आभ्यंतर शौच एवम बाह्य शौच का पालन कर आंतरिक एवम बाह्य शुद्धि निरंतर बनाये रखना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना; मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल बनये रखना; समस्त प्रकार के वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि का सम्यक् ज्ञान रखना तथा उनमें श्रद्धा रखना, वेद शास्त्रों का अध्ययन – अध्यापन (पठन – पाठन) करना और परमात्मा के तत्व का अनुभव करना – ये सब के सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक गुणों पर आधारित कर्म हैं । गीता – १८.४२

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥
अर्थात् शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव – ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक गुणों पर आधारित कर्म हैं । गीता – १८.४३

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥
अर्थात् कृषि (खेती), गोपालन और क्रय – विक्रय का व्यापार स्वरूप सत्य व्यवहार – ये सब के सब ही वैश्य के स्वाभाविक गुणों पर आधारित कर्म हैं । इसी प्रकार सभी वर्ण के लोगों की सेवा कर उनके कार्यों में हर संभव सहयोग करना शूद्र के स्वाभाविक गुणों पर आधारित कर्म हैं । गीता – १८.४४

यहां यह भी स्पष्ट कर देना प्रासंगिक होगा कि ब्राह्मण वर्ण के साथ साथ सभ्य समाज के सभी वर्ग के सभी लोगों को आभ्यंतर शौच (आन्तरिक शुद्धि) एवम बाह्य शौच (बाहरी शुद्धि) – दोनों प्रकार के शौच (शुद्धि) का पालन करना चाहिये । ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, पूर्वाग्रह, पक्षपात, भय, घृणा और अहंकार – इन दस प्रकार के मानव दुर्गुणों से मुक्त होना ही आभ्यंतर शौच (आंतरिक शुद्धि) कहलाता है । हाथ, पैर, मुंह, नाक, दांत, जीभ, चेहरा, माथा, जननांग, मल – मूत्र विसर्जन अंग, सम्पूर्ण शरीर, वस्त्र, बिछावन, निवास स्थान आदि की नित्य प्रति निरंतर सफाई ही बाह्य शौच (बाहरी शुद्धि) कहलाता है ।

प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था अथवा चतुर्वर्ण व्यवस्था के अतिरिक्त पेशा अथवा व्यवसाय के नाम के अनुसार जाति व्यवस्था भी प्रचलित थी । वस्तुतः पेशा अथवा व्यवसाय के नाम को ही जाति की संज्ञा दी गयी थी, जिसके अनुसार लोहा का काम करने वाले को लोहार, चमडा का काम करने वाले को चमार (चर्मकार), लकडी का काम करने वाले को बढई, मिट्टी का बर्तन बनाने वाले को कुम्हार (कुम्भकार), गाय (गौ) पालन करने वाले को ग्वाला की संज्ञा दी गयी ।

यह बात एक निर्विवाद त्रिकाल सत्य है कि माता – पिता के सद्गुण एवम दुर्गुण आनुवंशिक (जेनेटिक) रूप से उनके पुत्र एवम पुत्रियों में हस्तांतरित हो जाते हैं, जो किसी भी व्यक्ति के समस्त गुण और व्यक्तित्व का ३० % निर्धारित करते हैं, व्यक्ति के शेष ३० % गुण एवम व्यक्तित्व के निर्धारण में उनके परिवार का माहौल (वातावरण, आर्थिक स्थिति, व्यवसाय, नैतिक मूल्य, परंपरा, संस्कृति) मुख्य भूमिका निभाते हैं, तथा व्यक्ति के शेष ४० % गुण एवम व्यक्तित्व के निर्धारण में उनकी शिक्षा एवम शैक्षणिक संस्थान का माहौल तथा उनके इर्द गिर्द सामाजिक परिवेश का माहौल (वातावरण, आर्थिक स्थिति, व्यवसाय, नैतिक मूल्य, परंपरा, संस्कृति) मुख्य भूमिका निभाते हैं । यह बात भी एक निर्विवाद त्रिकाल सत्य है कि जो व्यक्ति जिस परिवार मे पैदा होता है, उस परिवार में माता – पिता के पेशा एवं व्यवसाय के कार्यों को बचपन से ही देखते समझते तथा उन कार्यों में सहयोग करते करते १८ – २० साल की उम्र होते – होते वह व्यक्ति बिना किसी विशेष शिक्षण अथवा प्रशिक्षण के, अपने परिवार के व्यवसाय मे तथा व्यावसायिक दक्षता में उस स्तर की पूर्ण महारत हासिल कर लेता है, जिसे कोइ दूसरे व्यवसाय को धारण करने वाले दूसरे परिवार मे जन्मा व्यक्ति ५ – ६ साल की विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करने के बावजूद भी हासिल नहीं कर सकता । यह बात भी एक निर्विवाद त्रिकाल सत्य है कि प्रत्येक माता – पिता की चाहत होती है कि जिस व्यवसाय को उसने अपनाया है तथा जिस व्यवसाय को सफल बनाने और उसे अधिकतम संभव ऊंचाई तक ले जाने के लिये उसने जीवन भर कठिन परिश्रम किया है, उस व्यवसाय को उसके उत्तराधिकारी वंशज भी अपनायें तथा उसे और आगे बढायें । इसीलिये पीढी – दर – पीढी निरंतर लोग अपने परिवार मे माता – पिता के व्यवसाय को ही अपनाने लगे तथा व्यावसायिक कार्यों में परस्पर सहयोग एवम सहुलियत के लिये लोग अपने ही पेशा या व्यवसाय (जाति) के लडका – लडकी से विवाह करने लगे तथा समान पेशा या व्यवसाय के लोग एक साथ एक मोहल्ला या टोली बनाकर रह्ने लगे, जिससे भिन्न – भिन्न पेशा या व्यवसाय के लोगों ने अपनी विशेष प्रकार की व्यावसायिक कार्य संस्कृति को जन्म दिया, जिससे जाति प्रथा का विकास हुआ और इसी जाति प्रथा के कारण भारत मे समस्त प्रकार के उच्च स्तरीय ज्ञान – विज्ञान, कला – तकनीक एवम सम्पूर्ण विश्व की सर्वोत्कृष्ट सभ्यता – संस्कृति का विकास हुआ, जिसने सम्पूर्ण विश्व में उच्च स्तरीय ज्ञान – विज्ञान, कला – तकनीक एवम सभ्यता – संस्कृति को विकसित किया तथा सम्पूर्ण विश्व की सभ्यता – संस्कृति को प्रभावित किया ।



प्राचीन भारत की शिक्षा पद्धति अत्यन्त ही उन्नत, सार्थक एवम पूर्णरूपेण व्यावहारिक थी । सुप्रसिद्ध ॠषियों (प्राध्यापक, शिक्षाविद, चिकित्सक, वैज्ञानिक एवम दार्शनिक) द्वारा घने जंगलों में प्राकृतिक वातावरण में चलाये जाने वाले ॠषि आश्रम (आदर्श शिक्षण संस्थान, शोध संस्थान एवम वैज्ञानिक प्रयोगशाला)) में सुयोग्य व्यक्तियों को समस्त शस्त्र एवम शास्त्र (धर्म शास्त्र, व्यवहार विज्ञान, नीति शास्त्र, राजनीति शास्त्र, गणित, विज्ञान, खगोल शास्त्र, युद्ध कला, धनुर्विद्या, सैन्य शास्त्र आदि) की शिक्षा एवम व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर सभी छात्रों को व्यावहारिक जीवन की समस्त परिस्थितियों का सामना करते हुए सफल जीवन जीने की कला में पारंगत किया जाता था तथा ॠषि आश्रम में ब्राह्मण ॠषि द्वारा निःस्वार्थ भाव से सभी धनी एवं गरीब छात्रों को बिना किसी भेद भाव के एक समान निःशुल्क भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा एवम प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था । ॠषि आश्रमों में छात्र – छात्राओं के समस्त अन्तर्निहित गुणों, शारीरिक एवम मानसिक शक्तियों तथा उनकी प्रतिभा का समग्र रूप में विकास कर उन्हें व्यावहारिक जीवन की परिस्थितियों का तथा दुष्ट प्रकृति के राक्षस प्रवृत्ति के लोगों का सफलतापूर्वक सामना करने में सक्षम बनाया जाता था । इसीलिये समाज में ब्राह्मण (बुद्धिजीवी शिक्षक) एवम ॠषि (आदर्श शिक्षण संस्थान, शोध संस्थान एवम वैज्ञानिक प्रयोगशाला के संचालक सुप्रसिद्ध प्राध्यापक, शिक्षाविद, चिकित्सक, वैज्ञानिक एवम दार्शनिक) को बहुत ही आदर की दृष्टि (नजर) से देखा जाता था तथा प्रत्येक प्रकार के पूजा- पाठ एवम यज्ञ की समाप्ति के समय ब्राह्मण एवम ॠषि को आवाहन (सादर आमंत्रित) कर के समाज के सभी वर्ग के लोग यथा संभव सर्वाधिक चल एवम अचल सम्पत्ति तथा नकद धन राशी उन्हें समर्पित करते थे ।

इतिहास साक्षी है – दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्वों ने हमेशा ही समाज की हर व्यवस्था का दुरुपयोग किया है, तथा जिस किसी जाति, पेशा, व्यवसाय, रूप, वस्त्र या पह्नावा को समाज के लोगों ने सम्मान दिया, उसी जाति, पेशा, व्यवसाय, रूप, वस्त्र या पह्नावा को धारण कर ऐसे दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्वों ने हमेशा ही समाज को तथा समाज के भोले भाले लोगों को ठगा है और यह प्रक्रिया आज भी बदस्तुर जारी है । पूर्व काल में चूंकि समाज में ब्राह्मण और ॠषि को लोग बहुत आदर कि दृष्टी से देखते थे, इसलिये दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्व हमेशा समाज में आदर पाने के लिये तथा समाज के लोगों की आंखों मे धूल झोंककर अपने गलत इरादों को और गलत कार्यों को अन्जाम देने के लिये ब्राह्मण और ऋषि क रूप धारण किया करते थे । ठीक उसी प्रकार आज के जमाने में भी दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्व हमेशा समाज में आदर पाने के लिये तथा समाज के लोगों की आंखों मे धूल झोंककर अपने गलत इरादों को और गलत कार्यों को अन्जाम देने के लिये दुष्ट प्रवृत्ति के अदूरदर्शी परम स्वार्थी तत्व वर्त्तमान व्यवस्था की खामियों का लाभ उठाकर बुद्धिजीवी वर्ग (अर्थात् शिक्षक, प्राध्यापक, प्राचार्य, शिक्षाविद, शोधकर्त्ता, वैज्ञानिक, न्यायविद, न्यायाधीश, कानूनी सलाहकार, नीति निर्धारक, चिकित्सक, मंत्री, प्रधान मंत्री, कवि, लेखक, दार्शनिक, समाज सेवक एवम संस्कृतिकर्मी आदि) का पेशा अपना कर हर बात की गलत व्याख्या कर लोगों को उल्लू बनाकर अपने स्वार्थ की सिद्धि कर रहे हैं तथा समाज में विष वमन कर समाज मे वैमनस्य फैला रहे हैं ।

अंग्रेजों की गुलामी से स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत स्वतंत्र भारत में शासन चलाने के लिये सत्ता में दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्वों का समावेश हो गया, जो सस्ती लोकप्रियता बनाये रखने और निरंतर सत्ता मे अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये “फूट डालो और शासन करो” की नीति अपनाते रहे तथा जाति और मजहब की अग्नि सुलगाकर राजनीति की रोटियां सेंकने में निरंतर भिडे रहे और आज भी भिडे हुए हैं । स्वतंत्र भारत में अलग – अलग मजहब के लोगों के लिये अलग अलग कानून बनाये गये – हिन्दू एवम मुसलमान के लिये अलग अलग कानून की व्यवस्था की गयी तथा हर क्षेत्र में जाति के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गयी, जिसे भारतीय संविधान में “अम्बेडकर इफेक्ट” के रूप मे जाना जाता है, जो भारतीय संविधान की मूल आत्मा के विरूद्ध है, जो धर्म, न्याय एवम जनतंत्र के मूल सिद्धान्तों के विरूद्ध है, जो पंथ निरपेक्षता (सेक्युलरिज्म) के सिद्धान्तों के विरुद्ध है, जो भारतीय जनमानस के बीच वैमनस्य का विष घोलता है, जो राष्ट्र की एकता और अखंडता को विखंडित करता है, जो अयोग्यता एवं अक्षमता को प्रोत्साहित करता है, जो प्रतिभाशाली व्यक्तियों की योग्यता, क्षमता, प्रतिभा, शक्ति एवम दक्षता को कुंठित करता है तथा उनका समाज एवम राष्ट्र के सर्वतोमुखी सतत् निरंतर विकास में सदुपयोग नहीं होने देता है तथा जो प्रतिभा पलायन (ब्रेन ड्रेन) की समस्या का जन्मदाता है, जो समाज एवम राष्ट्र के सर्वतोमुखी सतत् निरंतर विकास में सबसे बडी बाधा है ।

जो भी व्यक्ति विकास की दौड में पीछे रह गये हैं, जो शैक्षणिक, सामाजिक एवम आर्थिक रूप से पिछडे हुए हैं, उन सभी व्यक्तियों को व्यक्तिगत पिछडेपन के आधार पर तमाम प्रकार की हर संभव सुविधा प्रदान कर राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल कर उनके सर्वतोमुखी सतत निरंतर विकास का मार्ग प्रशस्त करना चाहिये । परंतु किसी भी रूप में जाति, सम्प्रदाय, मजहब, भाषा, नस्ल, रंग, स्थान, क्षेत्र आदि के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ किसी प्रकार का भेद- भाव नहीं किया जाना चाहिये । किसी भी रूप में जाति, सम्प्रदाय, मजहब, भाषा, नस्ल, रंग, स्थान, क्षेत्र आदि के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ किसी प्रकार का भेद- भाव अथवा जाति पर आधारित आरक्षण की पद्धति भारतीय संविधान की मूल आत्मा के विरूद्ध है, धर्म, न्याय एवम जनतंत्र के मूल सिद्धान्तों के विरूद्ध है तथा पंथ निरपेक्षता (सेक्युलरिज्म) के सिद्धान्तों के विरुद्ध है, जो भारतीय जनमानस के बीच भेद – भाव पैदा करता है तथा वैमनस्य का विष घोलता है, जो राष्ट्र की एकता और अखंडता को विखंडित करता है।

कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“चतुर्वर्ण व्यवस्था, जाति प्रथा तथा जातिवाद की गंदी राजनीति” नामक पुस्तक से उद्धृत)

Sunday, 15 November 2015

Glory of Hinduism




Those who are saying Hindus are intolerant should read this.


Muslim emperors ruled India for seven hundred years. The British ruled India for two hundred years. Some joined Islam through force. The Muslim emperors and the British were not able to convert the whole of India. Still the glory of Hinduism persists. The culture of Hinduism prevails. Nothing can shake its greatness and root.


Hinduism is neither asceticism nor illusionism, neither polytheism nor pantheism. It is a synthesis of all types of religious experiences. It is a whole and complete view of life. It is characterized by wide toleration, deep humanity and high spiritual purpose. It is free from fanaticism. That is the reason why it has survived the attacks of the followers of other great religions of the world.

Hinduism is extremely catholic, liberal, tolerant and elastic. No religion is so very elastic and tolerant like Hinduism. Hinduism is very stern and rigid regarding the fundamentals. It is very elastic in readjusting to the externals and non-essentials. That is the reason why it has succeeded in living through millennia.

The foundation of Hinduism has been laid on the bedrock of spiritual truths. The entire structure of Hindu life is built on eternal truths, the findings of the Hindu Rishis or seers. That is the reason why this structure has lasted through scores of centuries.
Hinduism stands unrivaled in the depth and grandeur of its philosophy. Its ethical teachings are lofty, unique and sublime. It is highly flexible and adapted to every human need. It is a perfect religion by itself. It is not in need of anything from any other religion. No other religion has produced so many great saints, great patriots, great warriors, great Pativratas (chaste women devoted to their husbands). The more you know of the Hindu religion, the more you will honour and love it.

Thursday, 26 February 2015

From Quantum Physics to Hindu Metaphycis :: The Hindu Cosmology:: Big Bang




 Recently Canadian Scientists proposed that Big Bang is not the starting of this universe. Universe never have began at a point but it is always existed. This idea is same as Hindu idea of Cycle of creation and destruction. Please follow this link about Canadian scientist concept.


http://www.thestar.com/life/2015/02/19/canadian-scientists-take-aim-at-big-bang-theory.html


In India science and religion are not opposed fundamentally, as they often seem to be in the West, but are seen as parts of the same great search for truth and enlightenment that inspired the sages of Hinduism. Thus, in the Hindu scientific approach, understanding of external reality depends on also understanding the godhead. In all Hindu traditions the Universe is said to precede not only humanity but also the gods. Fundamental to Hindu concepts of time and space is the notion that the external world is a product of the creative play of maya (illusion). Accordingly the world as we know it is not solid and real but illusionary. The universe is in constant flux with many levels of reality; the task of the saint is find release (moksha) from the bonds of time and space. 
"After a cycle of universal dissolution, the Supreme Being decides to recreate the cosmos so that we souls can experience worlds of shape and solidity. Very subtle atoms begin to combine, eventually generating a cosmic wind that blows heavier and heavier atoms together. Souls depending on their karma earned in previous world systems, spontaneously draw to themselves atoms that coalesce into an appropriate body." - The Prashasta Pada.
As in modern physics, Hindu cosmology envisaged the universe as having a cyclical nature. The end of each kalpa brought about by Shiva's dance is also the beginning of the next. Rebirth follows destruction.
Unlike the West, which lives in a historical world, India is rooted in a timeless universe of eternal return: everything which happens has already done so many times before, though in different guises. Hinduism arose from the discoveries of people who felt that they had gained an insight into the nature of reality through deep meditation and ascetic practices. Science uses a heuristic method that requires objective proof of mathematical theories. Yet both have proposed similar scenarios for the creation of the universe. Here is a look at Creation, Maya, Churning of Milky Ocean, Shiva's Cosmic Dance, Serpent of Infinity and a few articles on Hindu Cosmology.
Relation of concept of Black hole White Hole Parallel Universe with Inhalation and Exhalation of MahaVishnu::
In a number of stories from the Puranas the continual creation and destruction of the universe is equated to the outwards and inwards breaths of the gigantic cosmic Maha Vishnu.
The Brahma-saḿhitā (5.48) says:
"" yasyaika-niśvasita-kālam athāvalambyajīvanti loma-vilajā jagad-aṇḍa-nāthāḥviṣṇur mahān sa iha yasya kalā-viśeṣogovindam ādi-puruṣaḿ tam ahaḿ bhajāmi""
Translation::
The origin of the material creation is Mahā-Viṣṇu, who lies in the Causal Ocean. While He sleeps in that ocean, millions of universes are generated as He exhales, and they are all annihilated when He inhales. This Mahā-Viṣṇu is a plenary portion of a portion of Viṣṇu, Govinda (yasya kalā-viśeṣaḥ). The word kalārefers to a plenary portion of a plenary portion. From Kṛṣṇa, or Govinda, comes Balarāma; from Balarāma comes Sańkarṣaṇa; from Sańkarṣaṇa, Nārāyaṇa; fromNārāyaṇa, the second Sańkarṣaṇa; from the second Sańkarṣaṇa, Mahā-Viṣṇu; from Mahā-Viṣṇu, Garbhodakaśāyī Viṣṇu; and from Garbhodakaśāyī Viṣṇu, Kṣīrodakaśāyī Viṣṇu. Kṣīrodakaśāyī Viṣṇu controls every universe. This gives an idea of the meaning of ananta, unlimited. What is to be said of the unlimited potency and existence of the Lord? This verse describes the coverings of the universe (saptabhir daśa-guṇottarair aṇḍa-kośaḥ). The first covering is earth, the second is water, the third is fire, the fourth is air, the fifth is sky, the sixth is the total material energy, and the seventh is the false ego. Beginning with the covering of earth, each covering is ten times greater than the previous one. Thus we can only imagine how great each universe is, and there are many millions of universes.
Now as stated as Mahavishnu inhales millions of Universes are destroyed at the same time when Mahavishnu exhales millions of Universes are generated.
Taking up the concept of black holes, black hole is a region of space having a gravitational field so intense that no matter or radiation can escape and black holes inhales each matter, energy, planet, stars etc which is near it. There is a contemporary white hole which is celestial object that expands outward from a space-time singularity and emits energy and matter, in the manner of a time-reversed. As black hole inhales matter, energy, planet, stars,, white holes exhales matter, energy, planet, stars. This is the concept of parallel universe.
White holes are part of a solution to the Einstein field equations known as the maximally extended version of the Schwarzschild metricdescribing an eternal black hole with no charge and no rotation.
So there is a relation between Hindu concept of Mahavishnu and white hole black hole parallel universe concept. 

The concept of parallel universes appears in the Brahma Vaivarta Purana:
And who will search through the wide infinities of science to count the universes side by side, each containing its Brahma, its Vishnu, its Shiva? Who can count the Indras in them all--those Indras side by side, who reign at once in all the innumerable worlds; those others who passed away before them; or even the Indras who succeed each other in any given line, ascending to godly kingship, one by one, and, one by one, passing away? (Brahma Vaivarta Purana)
From Big Bang theory to Modern string Theory::
The Big Bang is described as the birth of the universe (Brahma), the life of the universe then follows (Vishnu), and the Big Crunch would be described as the destruction of the universe (Shiva) 
There are many metaphorical parallels between modern cosmology and the Hindu theory of 'Shrishti'. The 'Anda' itself resembles the hypothetical energy point from which the Big Bang and hence the Universe emerged. The true intonation of Om is very long and drawn out, it is described as an all pervading sound. Its parallel is the cosmic background radiation, currently at a temperature level of 2.725 kelvins, which pervades the Universe.
Even string theory finds a place in the Hindu texts The first thing that ever was and will be is 'Shabda' or sound. This energy is produced by vibrations in energy produced by the powers of the Trinity (Lord Brahma, Lord Vishnu and Lord Shiva). Although at a very high level, this resembles the multidimensional vibrations of the 'Gunas' or strings, which are said to be the basis of all creation.
The ultimate fate of the Universe is still an open question. The final answer depends upon the mass-energy content of the system as a whole. If it is below a certain limit, the Universe shall expand forever. If it exceeds a certain limit, it will contract into what has been conjectured as The Big Crunch.
The Hindu viewpoint of the continuous cycle of creation, destruction and rebirth is attuned to the theory of Big Bang - Expansion - Contraction - Big Crunch. This 'oscillation' is portrayed in Hindu texts, especially in the Bhagwad Gita as Shrishti followed by Vinaash. The period of Vinaash is one of extreme chaos where the very laws of Nature are described to fail. If the Big Crunch happens, the movement of galaxies towards each other will produce very strong gravitational fields which may make relativistic effects perceptible at a great magnitude. The physical phenomena which we are used to may change wildly or be non-existent.
Speed of Light in Rig Veda::
One of the Pundits employed by Sayan for translating the Rigveda explains at what speed the sun light spreads on the earth. Rig Veda(I, 50-4) following sloka’s state about the speed of light“Yojananam Dwe Dwe Shate Dwe Cha Yojane Aken Nimishardhena Krammana Namostute” (Rig-veda I,50-4)in this verse, the speaker pays respect the Sun Light who moves 2202 yojans in Half of the Nimish. Nimisharda means half a nimesh.
In ancient Sanskrit "nimish" itself means "blink of an eye" and that "nimisharda" is used to represent how far light travels in half of the blink of an eye i.e. "within the blink of an eye" !!