Friday, 5 April 2013

ख्वाजा मुइउद्दीन चिश्ती, अजमेर और भारत इतिहास




यह एक अजीब तथ्य है कि भारत भू पर आने वाले अधिकांश पाकिस्तानी राजनैतिक व्यक्ति अजमेर शरीफ जाने की इच्छा जरूर रखते हैं, सातवीं शताब्दी के मुहम्मद बिन कासिम और उसके बाद महमूद गजनवी और फिर मुहम्मद गौरी तक मध्य एशिया के किसी भी आक्रमणकारी का भारत भू को कब्जाने का स्वप्न पूरा नही हुआ.

ख्वाजा मुइउद्दीन चिश्ती के खंड काल पर दृष्टि डालें और तथ्यों को देखें तो पता चलता है कि चिश्ती वह संत थे, जो मुहम्मद गौरी के साथ भारत आये थे, यह बिना किसी शंका के मान्य है कि भारत भू पर हुए अनेकों आक्रमण और अत्याचारों के बाद भी भारतीय धर्म और संस्कृति लोप नही किये जा सके, किंतु इस को नष्ट करने हेतु जिस सांस्कृतिक आक्रमण का सहारा आज लिया जा रहा है (जिसमे मीडिया, चर्च, राजनैतिक पार्टियां, लव जिहाद इत्यादि), चिश्ती इन आक्रमणो के प्रथम उपयोगकर्ता थे.

मुहम्मद गौरी जैसे एक दुर्दांत व्यक्ति के साथ संत माने जाने वाले व्यक्ति का होना कुछ शंकाओं को जन्म देता है. आखिर एक संत (यदि वह संत है ) एक दुर्दांत रक्त पिपासु के साथ लंबी यात्रा कर के लाहौर से अजमेर तक पहुंचे और रास्ते मे हुए कत्ल ए आम से उसका संतत्व उसे जरा भी ना कटोचे, यह कैसे संभव है. हिंदुत्व सदा से ही ऐसे व्यक्तियों को जो परोपकार हेतु जीते हैं, सम्मान देता आया है. इसी मानसिकता का लाभ उठा कर चिश्ती ने अजमेर मे अपना आश्रम खोला जहां प्रत्येक व्यक्ति को भोजन की व्यवस्था की गई.

अपनी संस्कृति मे पले बढे हिंदू सदा ही परोपकारी व्यक्ति को आस्था और श्रद्धा की दृष्टि से देखते आये हैं. इसी मानसिकता का लाभ सर्वप्रथम चिश्ती ने उठाया, ( इस मानसिकता का लाभ ईसाई मिशनरियां आज भी उठा रही हैं, और परोपकार की आड मे धर्म परिवर्तन का कार्य कर रही हैं), अपने प्रसिद्ध होने और लोगो की आस्था का उपयोग चिश्ती ने भारत मे मुस्लिमों के लिये बेस बनाने के लिये किया.

वह जानता था कि जब तक भारतीय अपनी संस्कृति से जुडे रहेंगे तब तक उन्हे पराजित करना असंभव है, अतः उसने सर्वप्रथम यह किया कि हिंदू और मुस्लिमों के बीच मे एक कडी के रूप मे जुड गया, यह तभी संभव था जब वह हिंदुओं के बीच मे मान्यता प्राप्त कर लेता, इसी हेतु उसने अपने को एक चमत्कारी सूफी संत के रूप मे प्रचारित करना आरंभ किया. ध्यान रहे, अजमेर तत्कालीन राजपूतों की राजधानी था, और राजपूत वह जाति थी जो कभी भी विधर्मियों को स्वीकार नही करती थी. इस प्रकार हिंदू समाज मे अपनी लोकप्रियता का लाभ उसने मुहम्मद गौरी को दिया.

पृथ्वीराज चौहान से तिरस्कृत हो कर उसने कहा कि मैने अजमेर की चाबी कहीं और सौंप दी है, और शायद यह एक संकेत था, जिसे पा कर मुहम्मद गौरी ने पुनः आक्रमण किया, और उस समय तक जयचंद गौरी के साथ मिल चुका था, यह भी पूरी तरह संभव है कि इस मिलाप के पीछे चिश्ती का ही हाथ हो, क्योंकि राजपूत एक ऐसी जाति थी जो किसी भी प्रकार से विधर्मियों के साथ गठ बंधन नही बनाती थी, इसके स्थान पर वह अकेले ही लड कर वीरगति को प्राप्त हो जाना ज्यादा पसंद करते थे. और अपनी विजय का श्रेय भी मुहम्मद गौरी ने चिश्ती को ही दिया, और अपने गुलाम कुतुबुद्दीन एबक को निर्देश दिया कि वहां मंदिरों को तोड कर ढाई दिन मे मस्जिद बनाई जाये, जिसने यह कार्य किया वह मस्जिद आज भी अढाई दिन का झोपडा नाम से प्रचलित है.

यदि चिश्ती संत ही थे, तो कैसे यह बर्दाश्त कर सके कि कोई किसी दूसरे के आस्था के स्थानों को तोड कर वहां अपनी मस्जिदों का निर्माण करे? इस संतत्व के पीछे किसी सुनियोजित योजना की शंका होती है. आज के युग मे देखे, तो इसी प्रकार की योजना ईसाई मिशनरी सभी स्थानों पर अपने धर्म के प्रचार के लिये कर रही हैं. यह चिश्ती की के उस प्रथम प्रयोग का ही अगला चरण प्रतीत होता है जिसकी ने नींव कई शताब्दी पहले चिश्ती ने रखी थी. और शायद यही कारण है कि प्रत्येक पाकिस्तानी वहां जाने को अत्यंत उत्सुक रहता है. शायद ऐसा कर के वह अपने पूर्वजों को भारत मे मुस्लिम संप्रदाय की नींव रखने के लिये धन्यवाद देता है...

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